पलकें बन्द करते ही
बिछ जाते हैं
कितने ही
कोरे कागज
मेरे हृदय में
लिख जाते हैं
रोज
कितने ही अफसाने
इन कागजों की डोर
मेरी पलकों में बँधी लगती है
क्योंकि
पलकें खोलते ही
सारे अफसाने
हो जाते हैं गायब
और
जब तुम कहते हो
कि
पढ़नी है मेरी मौलिक रचना
तो
कलम, कागज, दवात लेकर
लिख देता हूँ
एक रचना
जो निश्चित ही
मेरे अवचेतन की रचना
नहीं होती
जबकि
मेरी मौलिक रचना
मेरे अचेतन में लिखी जा रही होती है
जो
अभी तक की वैज्ञानिक खोजों के अनुसार
किसी भी सोशल नेटवर्किंग साईट पर
अपडेट नहीं हो सकता
किसी भी मोबाइल से
एस एम एस नहीं हो सकता
किसी भी ई-मेल में
अटैच नहीं हो सकता
उसको पढ़ने के लिए
चाहिए ही होता है
वक्त
जो शायद कभी भी
हमने
एक-दूसरे को दिया ही नहीं
और
मेरे चेहरे की मुस्कुराहट की तरह
तुम
उस रचना की भी तारीफ कर देते हो
जो
शायद कभी मेरी मौलिक होती ही नहीं…