तुम्हारी बज़्म में मेरी अब जगह ही नहीं,
अदब में झुकने का मतलब नहीं, कि अना ही नहीं…
शिकवे भी बहुत थे, बहुत थी तारीफ़ें
खामोशियाँ चीखती रहीं पर तूने कभी सुना ही नहीं…
सच की हिफ़ाज़त में खुद को फ़ना कर जाएँ,
तमाम क़ाफ़िलों में अब ये तमन्ना ही नहीं…
हमारे सामने जो हमज़ुबाँ थे उनमें से,
मुंसिफे-दरबार में देखा कि किसी की जुबाँ ही नहीं…।