रोज दो आँखों और दो कानों से जो कुछ दिल के समुन्दर तक जाता है, उनमें से जो सतह पर ही रह जाता है वो तो ज़ुबाँ से बाहर आ जाता है लेकिन जो समुन्दर की तलहटी में चला जाता है अक्सर वो ज़ुबाँ से बाहर नहीं आता और कलम से अक्सर बाहर आ जाता है…। जिस तरह से कोई कलश समर्थ नहीं होता कि वो समुन्दर को नाप सके, उसी तरह से ये शब्द भी समर्थ नहीं हैं कि वो पूरी तरह से दिल की भावनाओं को व्यक्त कर सकें; और समर्थ हो भी क्यों…? जिस दिन ये समर्थ हो गये क्या उस दिन कलम रुक नहीं जाएगी और कलम का रुक जाना क्या मेरे लिए धड़कन का रुक जाना नहीं होगा…?
खैर जब तक धड़कन चल रही है, मेरी कलम भी यहाँ पर चलती रहेगी…।
स्वप्नेश चौहान
Posted by sandhya kacchawaha on अप्रैल 26, 2011 at 6:17 अपराह्न
sehmat hu aapke vichaaro se……jo vyakti gehraaiyo mein jaane ki ichhaa na rakhtaa ho use gehraaiyo mein khiich le jana murkhtaa hogi……..aur jo gehraaiyon mein doobna chaahta hai wah satah ko dekh kar samudra ki gehraai ko aank sakta hai.parantu wah bhi us gehraai ko shabdo mein nahi vyakt kar paaega……..wo gehraai uski gehraaiyon mein kaid ho jaegi…..
Posted by Neeraj Bhushan on सितम्बर 16, 2012 at 2:55 पूर्वाह्न
खूबसूरत शुरुआत हुई है. शुभकामना!
Posted by स्वप्नेश चौहान on सितम्बर 16, 2012 at 3:07 पूर्वाह्न
धन्यवाद भूषण जी अपनी टिप्पणी से हमको विभूषित करने के लिए…