तुम्हारी बज़्म में मेरी अब जगह ही नहीं,
अदब में झुकने का मतलब नहीं, कि अना ही नहीं…
शिकवे भी बहुत थे, बहुत थी तारीफ़ें
खामोशियाँ चीखती रहीं पर तूने कभी सुना ही नहीं…
सच की हिफ़ाज़त में खुद को फ़ना कर जाएँ,
तमाम क़ाफ़िलों में अब ये तमन्ना ही नहीं…
हमारे सामने जो हमज़ुबाँ थे उनमें से,
मुंसिफे-दरबार में देखा कि किसी की जुबाँ ही नहीं…।
Posted by Dhruv Singh (एकलव्य) on मई 4, 2017 at 9:47 अपराह्न
वाह ! बहुत खूब ,सुंदर रचना
Posted by स्वप्नेश चौहान on मई 8, 2017 at 5:12 पूर्वाह्न
शुक्रिया ध्रुव जी…!
Posted by Pammi singh on मई 5, 2017 at 8:36 पूर्वाह्न
एहसासों का सुन्दर तानाबाना..
Posted by स्वप्नेश चौहान on मई 8, 2017 at 5:13 पूर्वाह्न
इस ताने बाने में उलझने और सराहने हेतु शुक्रिया पम्मी जी…!
Posted by Ravindra Singh Yadav on मई 5, 2017 at 11:32 पूर्वाह्न
ज़िन्दगी के उतार -चढ़ाव ऐसी ही बिडम्बनाएँ लेकर खड़े हो जाते हैं जहाँ चाहतों के विपरीत कुछ अटपटा सा घटता रहता है और सामने आती है एक भावाभियक्ति। सुन्दर रचना।
Posted by स्वप्नेश चौहान on मई 8, 2017 at 5:14 पूर्वाह्न
बहुत शुक्रिया रविन्द्र जी…!