तुम्हारी बज़्म में मेरी अब जगह ही नहीं…

खामोशियाँ

तुम्हारी बज़्म में मेरी अब जगह ही नहीं,

अदब में झुकने का मतलब नहीं, कि अना ही नहीं…

शिकवे भी बहुत थे, बहुत थी तारीफ़ें

खामोशियाँ चीखती रहीं पर तूने कभी सुना ही नहीं…

सच की हिफ़ाज़त में खुद को फ़ना कर जाएँ,

तमाम क़ाफ़िलों में अब ये तमन्ना ही नहीं…

हमारे सामने जो हमज़ुबाँ थे उनमें से,

मुंसिफे-दरबार में देखा कि किसी की जुबाँ ही नहीं…।

6 responses to this post.

  1. वाह ! बहुत खूब ,सुंदर रचना

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  2. एहसासों का सुन्दर तानाबाना..

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  3. ज़िन्दगी के उतार -चढ़ाव ऐसी ही बिडम्बनाएँ लेकर खड़े हो जाते हैं जहाँ चाहतों के विपरीत कुछ अटपटा सा घटता रहता है और सामने आती है एक भावाभियक्ति। सुन्दर रचना।

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अनमोल रत्न

एक अमूल्य संकलन

अपनी बात

भावनाओं के संप्रेषण का माध्यम।

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बात जो है खास ....

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